पं. श्याम सुन्दर झा
सम्पादकीय निदेशक
साठ साल की संसद
देश
के लोकतान्त्रिक इतिहास में निश्चय ही 13
मई का दिन स्वर्णिम क्षणों का साक्षी बनने का गौरवशाली अवसर होगा जब
हमारी संसद को अस्तित्व में आये साठ साल पूरे हो जायेंगे....इन साठ सालों में हमने लोकतान्त्रिक
प्रयोगों के कीर्तिमान भी बनाये
हैं व कई उदहारण भी प्रस्तुत किये हैं...रक्तहीन क्रांति से
सत्ता परिवर्तन की परम्पराएं
स्थापित की तो लोकतंत्र को नए आयाम भी दिए....किन्तु बीते साठ वर्षों के संसदीय
इतिहास में कुछ ऐसे काले अध्याय भी जुड़े जिनसे लोकतांत्रिक गरिमा का हनन हुआ....लिहाज़ा
यह माननीयों के लिए आत्म विश्लेषण का भी समय है....आम जनता जब इन्हें अपने
बीच से चुन संसद में भेजती है तो उन पर केवल उनकी उम्मीदों को पूरा करने की जिम्मेदारी
ही नहीं बल्कि संसद के उच्च मानदंडों और मर्यादाओं को कायम रखने का दायित्व
भी उन्हीं पर
रहता है... लोग संसद में मंदिर
और सांसद में लोक नायक की छवि
देखें , इसके
लिए माननीय सांसदों को अपनी भूमिका को नए सिरे से परिभाषित करना होगा...संसद
को मुद्दों
पर सार्थक चर्चा
कर जनता
की उम्मीदों पर खरा उतरना होगा... बहरहाल इस सब के बीच यह
संतोषजनक है कि साठ साल के दौरान हमारी
संसद की प्रासंगिकता निरंतर बढ़ी है....संसद पर जनता का विश्वास और मज़बूत हुआ है...
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